भाषा: अपभ्रंश भाषा।
समय: सामान्यतः 10वीं शताब्दी (लगभग 972 ई.) माना जाता है। इसका पूर्ण होने का समय 11 जून 972 ई. बताया गया है।
विधा: यह एक विशाल चरित काव्य (आख्यान काव्य) और महाकाव्य है।
विषय: इसमें जैन धर्म के 63 शलाकापुरुषों (तिरसठ महापुरुषों) का जीवन चरित्र वर्णित है।
इन 63 महापुरुषों में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव शामिल हैं।
खंड और विभाजन:
यह ग्रंथ मुख्य रूप से दो खंडों में विभक्त है:
आदि पुराण: इसमें मुख्य रूप से प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती का जीवन चरित्र वर्णित है।
उत्तर पुराण: इसमें शेष 23 तीर्थंकरों और अन्य महापुरुषों का चरित्र वर्णन किया गया है।
इस ग्रंथ में लगभग 20 हज़ार पद हैं, जो संधियों (Chapters) में विभाजित हैं।
छंद और काव्यगत विशेषताएँ:
छंद: चरित काव्यों की परंपरा के अनुसार इसमें मुख्य रूप से चौपाई छंद का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश में चौपाई 15 मात्राओं का छंद था। (यह प्रायः कड़वक शैली में है, जहाँ 8-8 चौपाइयों के बाद धत्ता/दोहा दिया जाता है।)
धार्मिक भाव: रचना विशुद्ध रूप से धार्मिक भाव से की गई है, परंतु इसमें उच्च कोटि का काव्यत्व भी मिलता है।
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