योगसार

काल– अनुमानतः ईसवी सन् 6ठीं से 9वीं शताब्दी के बीच। वह आचार्य कुन्दकुन्द के बाद के अध्यात्मिक आचार्यों की श्रेणी में आते हैं।
भाषा– अपभ्रंश (जिसे उस समय की लोक-भाषा या ‘दूहा’ (दोहा) शैली की भाषा माना जाता था)।
छंद/दोहे– इस ग्रंथ में कुल 108 दोहे (दूहे) हैं।
उद्देश्य– संसार के दुख से भयभीत (भव-भीत) और मोक्ष के अभिलाषी जीवों को आत्म-स्वरूप का बोध कराना।


योगसार का केंद्रीय विषय: सच्चा योग क्या है?

ग्रंथ ‘योगसार’ का नामकरण भले ही योग पर हो, लेकिन इसका विषय पतंजलि के अष्टांग योग या हठयोग की शारीरिक क्रियाओं से भिन्न है। योगीन्दु देव ने यहाँ आध्यात्मिक योग या शुद्धात्म-योग की व्याख्या की है।
योग की परिभाषा: सच्चा योग न तो शारीरिक क्रिया है, न ही केवल वाणी का जाप, बल्कि मन, वचन और काय (शरीर) के सभी क्रियाकलापों (योगों) का निरोध करके अपनी शुद्धात्मा में स्थिर हो जाना।

योगसार का महत्व

अध्यात्म की सुलभता: ‘योगसार’ ने अपभ्रंश जैसी लोक-भाषा का प्रयोग करके अध्यात्म के गहन विषयों को आम साधकों तक पहुँचाया।
प्रेरक शक्ति: यह ग्रंथ आज भी जैन साधकों के बीच आत्म-जागृति और मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए एक प्रमुख प्रेरणास्रोत बना हुआ है।
अन्य रचनाओं से संबंध: यह ग्रंथ मुनिराज योगीन्दु देव की अन्य महान रचनाओं, जैसे ‘परमात्म-प्रकाश’ और ‘भाव संग्रह’ के साथ मिलकर जैन अध्यात्म का एक सशक्त त्रिवेणी प्रस्तुत करता है।
संक्षेप में, ‘योगसार’ वह ग्रंथ है जो हमें बाहरी संसार से हटाकर अपने अंदर स्थित शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन होने का सरल और सीधा मार्ग दिखाता है।

योगसारकाश को पीडीएफ़ रूप में प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक करें

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

0

Subtotal